रिश्ता

रिशता

सब कुछ हवा कि तरह साफ है.

बदनसीबी की धूप इतनी तेज है

कि उससे झुलस गया है, हर कच्चा पोधा - जिसे वादों की बारिश ने धोखा दिया है.


महसूस हर कोई करता है,

पर अपने फटे आँचल की बजाये,

सब दूसरो की आंखों को दोष देते हैं कि उन्हें नंगापन देखने कि आदत हो गई है।




दोष पैरों का नहीं रास्ते का बताते हैं, जो सहज हो भटकाता है।


अजीब है कि हर रिश्ता वहीं लौट आता है जहाँ न होने कि उसने कसमें खाई थी ।

शायद हम अपने ही अ-विश्वास की धुन्द्ली सी तस्वीर हैं।


अजीब हालत है -

कोई रिश्ता नहीं,

पर उस रिश्ते कि महक हर तरफ फ़ैली हुई है।



भगवान् कभी कहीं नहीं दिखता -

पर उसकी खुशबू हर तरफ फ़ैली हुई है।



क्या रिश्ता भी भगवान् कि तरह है ?

हाँ !

शायद यह रिश्ता भी भगवान् की ही तरह है।
...भगवान्... !

मालूम नहीं भगवान् क्या चीज है।

पर यह लफ्ज़ इक आदत कि तरह मुहँ से निकल जाता है.

आदत कि तरह नहीं, शायद दुखी सांस की तरह




कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो हर हाल में रहते हैं.

स्वीकृति से जनम लेते हैं और कायम रहते हैं

यहाँ तक तो ठीक है. पर कुछ रिश्ते अ-स्वीकृति में से भी जनम लेते हैं.

सिर्फ जनम ही नहीं लेते, इंसान कि उम्र के साथ भी जीते हैं

रिश्ता - जाने क्या चीज है -

जहाँ
कुछ नहीं होता, वहाँ नज़र आता है

जहाँ नज़र नहीं आता - वहाँ होता है

शायद इस से कड़वा सच कोई नहीं है.

जिंदगी कि इस हकीकत को इतनी कड़वे रुप में मैने कभी नहीं देखा था

कित्ताब ख़त्म हो जाती है, पर कहानी चलती रहती है।


रिश्तों के संदर्भ में

इंसान की ऊंची मानसिकता की सम्भावना को यदि एक ही पंक्ति में कहना हो

तो यह कहा जा सकता है :


कि इंसान हर खाई के ऊपर आप ही इक पुल बनना चाहता है,

आप ही पुल से गुजरने वाला

और आप ही अपने से आगे पहुँचने वाला.



तन्हाई में भी हमारा अतीत हमारा साथ नहीं छोड़ता।

सारी भीड़ हमें घेर लेटी है .

भूले बिसरे चेहरे सामने आकर हमसे बात करते हैं.

हमें उनका जवाब देना पड़ता है। -




यानी - रिश्तों में ही संवाद है और रिश्तों में ही शांति.




रिश्तों के मूल तत्व को पहचानिए.



न आप को शांति कि खोज करनी पड़ेगी

और न ही आनंद का रस पीने के लिए विवेक खोना पड़ेगा।

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