इक दिल वालों की बस्ती थी
जहाँ चांद और सूरज रहते थे ...

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कुछ सूरज मन का पागल था
कुछ चांद भी शोख चंचल था ...
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बस्ती बस्ती फिरते थे
हर दम हँसते रहते थे ...
. . . . . .





फिर इक दिन दोनो रूठ गए
और सारे सपने टूट गए ...
. . . . . .





अब चांद भी उस वक़्त आता है
सूरज जब सो जाता है ...
. . . . . .





बादल सब से कहते हैं
सूरज उलझा सा रहता है ...
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चांद के साथ सितारे हैं
पर सूरज तन्हा रहता है ...
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अंदाज़-ऐ-जुदाई

रफाकतें कभी जंजीरे - पा नहीं होती

न चल सको,
तो बिछुड़ जाओ दोस्तों की तरह



फरिश्तों की दुआ


लाजिम तो नहीं कि जुबां इज़हार करे

कुछ जज्बों को अहसास भी हवा देते हैं

खामोश मोहबत भी इबादत होती है

ऐसी मोहबत को फ़रिश्ते भी दुआ देते हैं

अश्क

अश्कों से तर है फूल की हर एक पंखुड़ी


रोया है कौन थाम के दामन बहार का ....

दोस्ती

बारिशों से दोस्ती अच्छी नहीं ...

कच्चा तेरा मकान है ...


कुछ तो ख्याल कर...!!!



शिकवा शिक़ायत

अब के करना , तो किसी ऐसे की चाहत करना

जिसको आता ही न हो शिकवा शिक़ायत करना ...

गिनती ...

एक दिन : एक सूरज

एक रात : एक चाँद


एक मैं : हज़ारों तन्हाइयां ...

अश्क

उसने पौंछे ही नहीं अश्क मेरी आँख के

मैने खुद रो के, कुछ देर हंसाया था जिसे

जब भी कोई सपना टूटा

जब भी कोई सपना टूटा

मेरी आँख वहाँ बरसी है

तड़्पा हूँ मैं, जब भी कोई

मछली पानी को तरसी है


गीत दर्द का पहला बेटा

दुःख है उसका खेल खिलौना


कविता मेरी, तब मीरा होगी

जब हंस कर जहर पिया जायेगा

चाँद-सूरज

चाँद मत समझो मूझे, सूरज हूँ मैं

डूब तो सकता हूँ, घट नहीं सकता...

रिश्ते...


कहते हैं रिश्ते आसमान से बनकर आये हैं

लेकिन उनको भी निभाया है, मैने जमीन पर

दूर हम तुमसे जा नहीं सकते...

दूर हम तुमसे जा नहीं सकते
शर्त ये भी है कि पा नहीं सकते


किसी को अपने आंसूओं का सबब
लाख चाहें, बता नहीं सकते


जिस पे लिखी है इबारत कोई
हम वो दीवार गिरा नहीं सकते



उसको रिश्तों से है नफरत शायद
कोई रिश्ता बना नहीं सकते


आंखों में लग जाये तो...

आंखों में लग जाये तो नाहक निकले खून

बेहतर है छोटे रखें, रिश्तों के नाखून


भोचक्की है आत्मा, सांसें हैं हैरान

हुक्म दिया है जिस्म ने, खाली करो मकान


शेल्फ़ से निकली किताब की जगह ख़ाली पड़ी है...


इक दोस्त रहता था साथ मेरे




कोई आया था,



उन्हें ले गया,



फिर कोई नहीं लोटा ...



शेल्फ़ से निकली किताब की जगह ख़ाली पड़ी है!

कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे...!

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,


लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,


और हम खड़ेखड़े बहार देखते रहे।


कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!





नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,


पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,


पातपात झर गये कि शाख़शाख़ जल गई,


चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,


गीत अश्क बन गए,छंद हो दफन गए,


साथ के सभी दिऐ धुआँधुआँ पहन गये,


और हम झुकेझुके,मोड़ पर रुकेरुके


उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।


कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।







क्या शबाब था कि फूलफूल प्यार कर उठा,


क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा


थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,


एक दिन मगर यहाँ,ऐसी कुछ हवा चली,


लुट गयी कलीकली कि घुट गयी गलीगली,


और हम लुटेलुटे, वक्त से पिटेपिटे,


साँस की शराब का खुमार देखते रहे।


कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।







हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,


होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,


दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,


और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,


हो सका न कुछ मगर,शाम बन गई सहर,


वह उठी लहर कि दह गये किले बिखरबिखर,


और हम डरेडरे, नीर नयन में भरे,


ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।


कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!







माँग भर चली कि एक, जब नई नई किरन,


ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरनचरन,


शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,


गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन नयन,


पर तभी ज़हर भरी, गाज एक वह गिरी,


पुँछ गया सिंदूर तार तार हुई चूनरी,


और हम अजान से, दूर के मकान से,


पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।


कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
























कटी पतंग का मांझा मुहल्ले भर में लुटा...!

वह जिस साँस का रिश्ता बंधा हुआ था मेरा



दबा के दाँत तले साँस काट दी उसने



कटी पतंग का मांझा मुहल्ले भर में लुटा!


कभी कभी...

कभी कभी बाजा़र में यूँ भी हो जाता है



कीमत ठीक थी,जेब में इतने दाम नहीं थे





ऐसे ही इक बार मैं तुम को हार आया ...।
तमाम सफ़हे किताबों के फड़फडा़ने लगे



हवा धकेल के दरवाजा, आ गई घर में!







कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो!!

रिश्ता

रिशता

सब कुछ हवा कि तरह साफ है.

बदनसीबी की धूप इतनी तेज है

कि उससे झुलस गया है, हर कच्चा पोधा - जिसे वादों की बारिश ने धोखा दिया है.


महसूस हर कोई करता है,

पर अपने फटे आँचल की बजाये,

सब दूसरो की आंखों को दोष देते हैं कि उन्हें नंगापन देखने कि आदत हो गई है।




दोष पैरों का नहीं रास्ते का बताते हैं, जो सहज हो भटकाता है।


अजीब है कि हर रिश्ता वहीं लौट आता है जहाँ न होने कि उसने कसमें खाई थी ।

शायद हम अपने ही अ-विश्वास की धुन्द्ली सी तस्वीर हैं।


अजीब हालत है -

कोई रिश्ता नहीं,

पर उस रिश्ते कि महक हर तरफ फ़ैली हुई है।



भगवान् कभी कहीं नहीं दिखता -

पर उसकी खुशबू हर तरफ फ़ैली हुई है।



क्या रिश्ता भी भगवान् कि तरह है ?

हाँ !

शायद यह रिश्ता भी भगवान् की ही तरह है।
...भगवान्... !

मालूम नहीं भगवान् क्या चीज है।

पर यह लफ्ज़ इक आदत कि तरह मुहँ से निकल जाता है.

आदत कि तरह नहीं, शायद दुखी सांस की तरह




कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो हर हाल में रहते हैं.

स्वीकृति से जनम लेते हैं और कायम रहते हैं

यहाँ तक तो ठीक है. पर कुछ रिश्ते अ-स्वीकृति में से भी जनम लेते हैं.

सिर्फ जनम ही नहीं लेते, इंसान कि उम्र के साथ भी जीते हैं

रिश्ता - जाने क्या चीज है -

जहाँ
कुछ नहीं होता, वहाँ नज़र आता है

जहाँ नज़र नहीं आता - वहाँ होता है

शायद इस से कड़वा सच कोई नहीं है.

जिंदगी कि इस हकीकत को इतनी कड़वे रुप में मैने कभी नहीं देखा था

कित्ताब ख़त्म हो जाती है, पर कहानी चलती रहती है।


रिश्तों के संदर्भ में

इंसान की ऊंची मानसिकता की सम्भावना को यदि एक ही पंक्ति में कहना हो

तो यह कहा जा सकता है :


कि इंसान हर खाई के ऊपर आप ही इक पुल बनना चाहता है,

आप ही पुल से गुजरने वाला

और आप ही अपने से आगे पहुँचने वाला.



तन्हाई में भी हमारा अतीत हमारा साथ नहीं छोड़ता।

सारी भीड़ हमें घेर लेटी है .

भूले बिसरे चेहरे सामने आकर हमसे बात करते हैं.

हमें उनका जवाब देना पड़ता है। -




यानी - रिश्तों में ही संवाद है और रिश्तों में ही शांति.




रिश्तों के मूल तत्व को पहचानिए.



न आप को शांति कि खोज करनी पड़ेगी

और न ही आनंद का रस पीने के लिए विवेक खोना पड़ेगा।

ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा

ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा
काफिला साथ और सफर तन्हा...


अपने साये से चौंक जाते हैं

उम्र गुज़री है इस कदर तन्हा ...


रात भर बोलते हैं सन्नाटे

रात काटे कोई किधर तन्हा...


दिन गुज़रता नहीं है लोगों में

रात होती नहीं बसर तन्हा...

हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते ...

हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते

वक़्त की शाख़ से लम्हें नहीं तोड़ा करते







जिस की आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन




ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते






तूने आवाज़ नहीं दी कभी मुड़कर वरना




हम कई सदियाँ तुझे घूम के देखा करते







लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो




ऐसी दरिया का कभी रुख़ नहीं मोड़ा करते ...

इतना मत चाहो उसे, वो बेवफ़ा हो जाएगा


सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा ।
इतना मत चाहो उसे, वो बेवफ़ा हो जाएगा ।



हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है,
जिस तरफ़ भी चल पड़ेगे, रास्ता हो जाएगा ।



कितना सच्चाई से, मुझसे ज़िंदगी ने कह दिया,
तू नहीं मेरा तो कोई, दूसरा हो जाएगा ।



मैं खुदा का नाम लेकर, पी रहा हूँ दोस्तो,
ज़हर भी इसमें अगर होगा, दवा हो जाएगा ।



सब उसी के हैं, हवा, ख़ुश्बु, ज़मीनो-आस्माँ,
मैं जहाँ भी जाऊँगा, उसको पता हो जाएगा ।


आँसुओं से लिखा हुआ ...



जिसे ले गई अभी हवा, वे वरक़ था दिल की किताब का,
कहीँ आँसुओं से मिटा हुआ, कहीं, आँसुओं से लिखा हुआ ।





कई मील रेत को काटकर, कोई मौज फूल खिला गई,
कोई पेड़ प्यास से मर रहा है, नदी के पास खड़ा हुआ ।





मुझे हादिसों ने सजा-सजा के बहुत हसीन बना दिया,
मेरा दिल भी जैसे दुल्हन का हाथ हो, मेंहदियों से रचा हुआ ।




वही शहर है वही रास्ते, वही घर है और वही लान भी,
मगर इस दरीचे से पूछना, वो दरख़्त अनार का क्या हुआ ।





वही ख़त के जिसपे जगह-जगह, दो महकते होटों के चाँद थे,
किसी भूले बिसरे से ताक़ पर तहे-गर्द होगा दबा हुआ ।



उन्हीं फ़क़ीरों ने इतिहास बनाया है यहाँ...

दूर से दूर तलक एक भी दरख्त न था
तुम्हारे घर का सफ़र इस क़दर सख्त न था







इतने मसरूफ़ थे हम जाने के तैयारी में,


खड़े थे तुम और तुम्हें देखने का वक्त न था







मैं जिस की खोज में ख़ुद खो गया था मेले में,


कहीं वो मेरा ही एहसास तो कमबख्त न था








उन्हीं फ़क़ीरों ने इतिहास बनाया है यहाँ,


जिन पे इतिहास को लिखने के लिए वक्त न था











नज़्म ...

नज़्म उलझी हुई है सीने में



मिसरे अटके हुए हैं होठों पर


उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह लफ़्ज़


काग़ज़ पे बैठते ही नहीं


कब से बैठा हूँ मैं जानम


सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा



बस तेरा नाम ही मुकम्मल है


इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी ...

आदतें भी अजीब होती हैं ...

साँस लेना भी कैसी आदत है


जिए जाना भी क्या रवायत है





कोई आहट नहीं बदन में कहीं


कोई साया नहीं है आँखों में


पाँव बेहिस हैं, चलते जाते हैं


इक सफ़र है जो बहता रहता है





कितने बरसों से,


कितनी सदियों से


जिये जाते हैं, जिये जाते हैं





आदतें भी अजीब होती हैं ...

महसूस

कुरान हाथों में लेके नाबीना एक नमाज़ी


लबों पे रखता था


दोनों आँखों से चूमता था



झुकाके पेशानी यूँ अक़ीदत से छू रहा था


जो आयतं पढ़ नहीं सका


उन के लम्स महसूस कर रहा हो





मैं हैराँ-हैराँ गुज़र गया था


मैं हैराँ हैराँ ठहर गया हूँ




तुम्हारे हाथों को चूम कर


छू के अपनी आँखों से


आज मैं ने


जो आयतें पड़ नहीं सका


उन के लम्स महसूस कर लिये हैं



आदतन ...

आदतन तुम ने कर दिए वादे

आदतन हम ने ऐतबार किया



तेरी राहों में हर बार रुक कर

हम ने अपना ही इन्तज़ार किया



अब ना माँगेंगे जिंदगी या रब

ये गुनाह हम ने एक बार किया

जुदाई ...

जिस की आँखों में कटी थी सदियाँ


उसने सदियों की जुदाई दी है

किस वतन की तलाश ...

मैं अपने घर में ही अजनबी हो गया हूँ आ कर



मूझे यहाँ देखकर मेरी रूह डर गई है

सहम के सब आरज़ुएँ कोनों में जा छुपी हैं

लवें बुझा दी हैंअपने चेहरों की, हसरतों ने

कि शौक़ पहचानता ही नहीं

मुरादें दहलीज़ ही पे सर रख के मर गई हैं





मैं किस वतन की तलाश में यूँ चला था घर से


कि अपने घर में भी अजनबी हो गया हूँ आ कर

मौत तू एक कविता है...

मौत तू एक कविता है,

मुझसे एक कविता का वादा है


मिलेगी मुझको


डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे


ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुचे





दिन अभी पानी में हो,

रात किनारे के करीब


ना अंधेरा ना उजाला हो,

ना अभी रात ना दिन




जिस्म जब ख़त्म हो


और रूह को जब साँस आऐ






मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको ...



उसी का इमान बदल गया है

वो ख़त के पुरज़े उड़ा रहा था

हवाओं का रुख़ दिखा रहा था





कुछ और भी हो गया नुमायाँ


मैं अपना लिखा मिटा रहा था




उसी का इमान बदल गया है


कभी जो मेरा ख़ुदा रहा था



वो एक दिन एक अजनबी को


मेरी कहानी सुना रहा था




वो उम्र कम कर रहा था मेरी


मैं साल अपने बढ़ा रहा था



न जाने क्या था...

न जाने क्या था,

जों कहना था

आज मिल के तुझे




तुझे मिला था

मगर, जाने क्या कहा मैंने


वो एक बात जो सोची थी तुझसे कह दूँगा

तुझे मिला तो लगा, वो भी कह चुका हूँ कभी




जाने क्या, ना जाने क्या था

जो कहना था आज मिल के तुझे



कुछ ऐसी बातें जो तुझसे कही नहीं हैं

मगर कुछ ऐसा लगता है तुझसे कभी कही होंगी




तेरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं हूँ तेरी क़सम

तेरे ख़यालों में कुछ भूल-भूल जाता हूँ



जाने क्या, ना जाने क्या था जो कहना था

आज मिल के तुझे जाने क्या...



चाँद और रोटी ...

मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे...






आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मेंने




रात भर रोटी नज़र आया है वो चांद मुझे



जीवन कहाँ खत्म हो जाता ...


जीवन जहाँ खत्म हो जाता




उठते-गिरते,


जीवन-पथ पर चलते-चलते,


पथिक पहुँच कर इस जीवन के चौराहे पर,


क्षणभर रुक कर,


सूनी दृष्टि डाल सम्मुख


जब पीछे अपने नयन घुमाता !




जीवन वहाँ ख़त्म हो जाता !



अंधेरों की खरीददारी...

सब मसरूफ थे




अंधेरों की खरीददारी में ...







हम सजाये हुए








शम्‍ओं की दुकान बैठे थे...


इश्क ...

दोनो का इश्क







कहीं ना कहीं तो जरूर लिखा था...






पर अफ़सोस...




तक्दीरों में नहीं ...

तआरूफ...

ये और बात





कि तआरूफ ना हो सका...






हम ज़िन्दगी के साथ





बहुत दूर तक गए...

रोशनी ...

रोशनी देखने वालों ने

ये कब सोचा है...




कि सुबह ने



कितने सितारों का



गला घोंटा है...

देवता ...

सिर झुकाओगे तो,

पत्थर देवता हो जाएगा...





इतना मत चाहो उसे,

वो बेवफा हो जाएगा...!!!

अब मालूम हुआ...

धूप है क्या और साया क्या है,

अब मालूम हुआ...


ये सब खेल, तमाशादारी,

अब मालूम हुआ...




हँसते फूल का चेहरा देखूं,

पर भर आई आंख...


अपने साथ ये किस्सा क्या है,

अब मालूम हुआ...




हम बरसों के बाद भी उसको,

अब तक भूल ना पाए...


दिल से उसका रिश्ता क्या है,

अब मालूम हुआ...




सहरा - सहरा प्यास में भटके,

सारी उम्र जगे ...


बादल का इक टुकड़ा क्या है,

अब मालूम हुआ...

फैसला...

हमारे रास्तों का फैसला
आसमान के सितारों ने किया था।





पर मेरे तन्हा रहने का फैसला
सितारों ने किया
या अनाज के दानो ने -



- एक ही बात है -





लेकिन इतना जरूर है


कि ये फैसला मैंने नहीं किया...


अपना अपना नसीब...

गरीब लहरों पे


पहरे बिठाये जाते हैं...




और




समुन्द्रों की तलाशी


कोई नहीं लेता...


दिल-ओ-ज़हन ...


दिल

जिस चीज़ को

'हाँ' कहता है ...



जेहन

उसी को

कहता है 'ना'...



इश्क में

'उफ़' ये

खुद ही से लड़ना ...



एक सज़ा है...




सीने में ...

पागलपन ...

खंजर से

हाथों पे लकीरें

.

.

कोई भला
क्या

लिख पाया ...?

.

.

हमने मगर
इक पागलपन में

.

.

खुद को छला है



सीने में...

मेरा गुनाह ...

ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं,

और क्या जुर्म है, पता ही नहीं...





इतने हिस्सों में बंट गया हूँ मैं,

मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं...!

' जनून '

जनून लफ्ज़ सुना जरूर था...


लेकिन ये नहीं पता था कि भुगतना भी पड़ेगा ...


और वो भी किसी किस्से कहानी की तरह नहीं...


इक ऐसे 'शख्स' के लिए जो मेरा 'खुदा' होगा...


और खुदा भी ऐसा

कि जिसकी अकीदत ही मेरा गुनाह बन जायेगी ...!!!



कभी तुम्हे हार का सामना ना करना पड़े...

जब रूठ ही गए हो,


तो मत आना वापिस ....



कि मुझसे यूं मंजर तेरी शिकस्त का



देखा ना जाएगा ...!!!



.



सवेरा...

चाहे लाख बार आये सूरज


मेरे आंगन में...




तुम ना आये,




तो सवेरा नहीं होने वाला ...!!!
.

मेरा लिखा ...

सब कुछ हवाओं के हवाले हैं...







.







.







ना कभी तुमने पढ़ा,



.



ना ज़िन्दगी ने...







दिल का लगाना ...

दिल भी किसी के साथ लगाया


तो एक बार



मैने कोई भी गुनाह




दोबारा नहीं किया....







सीने में.....


जिस रस्ते पर
तपता सूरज
सारी
रात नहीं ढलता ....




इश्क की ऎसी
राह्गुजर को
हमने चुना है ,



सीने में.....
.


इक दिल वालों की बस्ती थी...





इक दिल वालों की बस्ती थी

जहाँ चांद और सूरज रहते थे ...
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कुछ सूरज मन का पागल था

कुछ चांद भी शोख चंचल था ...
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बस्ती बस्ती फिरते थे

हर दम हँसते रहते थे ...
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फिर इक दिन दोनो रूठ गए

और सारे सपने टूट गए ...
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अब चांद भी उस वक़्त आता है

सूरज जब सो जाता है ...
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बादल सब से कहते हैं

सूरज उलझा सा रहता है ...
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चांद के साथ सितारे हैं


पर सूरज तन्हा रहता है ...

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