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इक दिल वालों की बस्ती थी...
मेरा गुनाह ...
ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं,
और क्या जुर्म है, पता ही नहीं...
इतने हिस्सों में बंट गया हूँ मैं,
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं...!
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कोई दिल के खेल देखे, के मोहबतों की बाजी ... ,
... वो कदम कदम पे जीते, मैं कदम कदम पे हारा....
काश! ........... इक 'खास' नजर इन पर भी पड़ती :-
dil ki aawaaj
,
tamanna
,
tumhare liye
पिद्दले बरस ये खौफ़ था...
तुझे खो न दूँ कहीं...
अब के बरस ये दुआ है...
तेरा सामना न हो...!
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आज हार भी कहे, तुझे...जीत...मुबारक...
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बेगुनाह मुजरिम...
अपने हिस्से की धूप को तरसते,
किसी की यादों के दरख्त के साए में
अपने पैर के अंगूठे से दायरे बनाते...
और फिर उन्ही दायरों में उलझ कर रह गए
इक बेगुनाह मुजरिम की दास्ताँ ....
आगे क्या लिखा है...?
...अब इन तक्दीरों से पूछने कौन जाये ...???
तकदीर देखूं...
तो इक बूँद नहीं नसीब...!
और प्यास देखूं...
तो समुन्दर की प्यास है...!!!
अब किसने डाली मेरे दर्द पर नजर...
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